मंगलवार, 15 मार्च 2011

मुझे भी जीने का हक है.....

चार साल पहले एक ऐसी चंचल लड़की से मिला था जिसे देखकर ऐसा लगता था मानो उसने दुख या उदासी कभी देखी ही न हो। हर वक्त हंसना खिलखिलाना, सबके साथ उठना बैठना , सबसे बातें करना, दोस्ती करना, रोते हुए को हंसाना उसके गुण हुआ करता था..

लेकिन अचानक कुछ ऐसा हुआ कि उसके चेहरे पर सदा के लिये उदासी छा गई । पिता को अचानक खोने के बाद उसका रक्तचाप(BP) बिगड़ गया । इसका असर किडनी पर भी हुआ। अचानक एक दिन जांच करवाने पर पता चला कि उसकी दोनों किडनियां खराब हो चुकी हैं..
लगातार अघातों ने उसके खिले हुये चेहरे को सदा के लिये निस्तेज बना दिया था। यार- दोस्तों में इतना दम न था कि वे उस मुरझाये चेहरे को फिर से खिला सकें.. निराशा, उदासी ,अकेलापन उसकी नियति बन चुकी है ।
अब उसे हफ्ते में दो दिन डायलसिस करवानी पड़ती है। हर दिन पीड़ादाई और संघर्ष पूर्ण हो चुका है। लेकिन उसका आत्मबल और हार न मानने की जिद उसे जीने की शक्ति प्रदान कर रहा है।
वही अभी लंबा जीवन जीना चाहती है, बिल्कुल आम लड़की तरह। अभी सारे ख्वाब उसके आंखों में तैर रहे हैं ।
लेकिन शायद समाज ऐसे लोगों की हिम्मत बढ़ाने के बजाय हौसला तोड़ने की कोशिश करता रहा है।
मैं स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद पीजी कर रहा हूं लेकिन वह अभी तक उसी डिपार्टमेंट की खाक छान रही है। उसे दो साल से परीक्षा में शामिल होने की अनुमति नहीं दी जा रही है। कारण उपस्थिति कम होना बताया जाता है । गुरुओं को पिता से भी ऊपर का दर्जा प्राप्त है लेकिन किसी अध्यापक ने इस लड़की की पीड़ा को नहीं समझा है। मदद तो दूर कोई सांत्वना के दो शब्द बोलने को तैयार नहीं।
एक ऐसा संस्थान जिसमें सदा से जुगाड़बाजों का बोलबाला रहा है , हमारे समय में भी कितने ही सहपाठी 30-40 % अटेंडेंस लेकर भी परीक्षा पार करते आयें हैं । उनको किसी ने नहीं समझाया कि बेटा अगले साल परीक्षा देना लेकिन सोनिया को हर कोई यही समझा देता है कि बेटा आप अगले साल परीक्षा दो तो बेहतर होगा..
काश कोई उसके दर्द को समझता ..
जामिया के V.C., H.O.D, अध्यापक गणों आप सब से निवेदन है कि नियम कानून इंसानों के लिये बनाये जाते हैं लेकिन आप लोगों ने उसे इंसान से ऊपर की वस्तु बना दी है.. आशा है आप अपने विवेक का उपयोग करेंगे..
सोनिया शायद एक साल और इंतजार न कर सके ....


बुधवार, 9 मार्च 2011

रेशम का धागा नहीं, अब बांधिये प्लास्टिक और नायलॉन





एशिया का सबसे बड़ा थोक बाजार कहा जाने वाला दिल्ली का सदर बाजार इन दिनों तरह तरह की रंग बिरंगी राखियों से अटा पड़ा है । 500 से भी अधिक दुकानें रक्षाबंधन के लिये पूरी तरह से समर्पित हैं । ये दुकानों रक्षाबंधन से संबंधित सभी तरह की सामग्रियों से सजी हुई हैं। स्थाई दुकानदारों के अलावा सैकड़ों दुकानदारों ने रेहड़ी पट्टियों पर भी अपनी दुकानें सजायी है। भाई बहन के इस प्यार भरे त्योहार के नजदीक आते ही पूरे उत्तर भारत से खासकर एनसीआर क्षेत्र के व्यापारी बड़ी संख्या में सदर बाजार पहुंच रहे हैं। हर तरफ जबर्दस्त उत्साह का वातावरण बन चुका है।
हालांकि बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा चलाई गई इलेक्ट्रानिक राखी , आधुनिक कार्डों और खासकर मंदी के असर को यहां के बाजार पर साफ तौर पर देखा जा सकता है। पिछले कुछ सालों से पड़ोसी देश चीन की हमारे देश के तीज-त्योहारों में खास दिलचस्पी देखी जा सकती है । खुद किसी धर्म में विश्वास करें या न करें लेकिन धर्म और उनके त्योहारों से व्यवसायिक लाभ कमाना चीनी कंपनियां अच्छी तरह जानती हैं। अब तो रेशम पर भी चीनी व्यापारियों की धाक साफ देखी जा सकती है। रक्षाबंधन के मद्देनज़र चीन की बनी हुई जो राखियां बाजार में आई हैं वे देखने में अत्यंत आकर्षक हैं। वहीं राखियों की लागत कम करने के लिये भारतीय व्यापारी भी चीनी धागों और कच्चे माल का इस्तेमाल कर रहें हैं।

पिछले वर्ष की तूलना में राखियों के दाम दो गुने भी ज्यादा भले ही बढ़ गये हैं लेकिन डिजाइन या गुणवत्ता में कोई खास अंतर नहीं आया है। बाजार में बच्चों को लुभाने वाले स्पाइडर मैन , हनुमान , खली , औऱ हैरीपॉटर के प्रतिरूप वाली राखियां खूब दिख रही हैं। इसे चीनी व्यापारियों के दिमाग का करामात कहें या वक्त का तकाज़ा, अब रेशम के बने धागों की जगह प्लास्टिक और नायलॉन की बनी राखियों ने ले लिया है । थोका विक्रेताओं के पास एक रूपये दर्जन से लेकर 5000 हजार रुपये दर्जन तक की राखियां मौजूद हैं। पिछले वर्ष आई आर्थिक मंदी का असर राखियों की बिक्री पर साफ नज़र आ रहा है। राखी व्यापारी थोक खरीदारों की बेरुखी और मंहगाई की मार से निराश हैं।

राखियों के थोक विक्रेता अंजू भाई के मुताबिक पिछले साल की तूलना में इस बार बाज़ार हल्का है। बज़ार की लगभग सभी बड़ी दुकानों में करोणों का माल रखा हुआ है । वे कहते हैं कि रक्षाबंधन को सिर्फ पांच दिन बाकी है लेकिन राखियों का अंबार लगा हुआ है । कुल बिक्री पूछने पर वे निराशा भरे स्वर से कहते हैं कि माल इस बार 50 प्रतिशत भी बिकने की उम्मीद नहीं है ।
सड़क किनारे रेहड़ी लगाने वाले रामू ने बताया कि बाजार में राखियों की बिक्री तो खूब है लेकिन दाम बढ़ने से दुकानदारों का मुनाफा कम हो गया है । कुछ भी क्यों न हो भाई बहन के इस पवित्र त्योहार रक्षाबंधन के उत्साह को मंहगाई की मार कम नहीं कर सकतीं।
(यह लेख राष्ट्रीय समाचार पत्र ‘देश बंधु’ में प्रकाशित हो चुका है।)

मलाईदार राजनीति





हाल ही में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने अन्य पिछड़ा वर्ग के ‘मालदार’ यानी की क्रीमी लेयर तबके के लिये वार्षिक आमदनी की न्यूनतम सीमा को ढाई लाख से बढ़ा कर चार लाख कर दिया है। सरकार की दलील है कि इस कदम से पिछड़े और उपेक्षित वर्ग के लोगों को आरक्षण का लाभ सही मायने में मिल सकेगा।
यूपीए सरकार का दावा है कि वह गरीबों की बड़ी शुभ चिंतक है, उसका हाथ हमेशा ही गरीबों के साथ रहा है। लेकिन इस दीनबंधु सरकार की यह घोषणा चकित करने वाली है । खुद को गरीबों का मसीहा बताने वाली इस सरकार ने गरीबी और पिछड़ेपन के मापदंड जिस प्रकार निर्धारित किया है उससे तो यही प्रतीत होता है कि वह देश की जमीनी हकीकत से नावाकिफ है।
महात्मा गांधी के आर्दशों पर चलने का दावा करने वाली सरकार उनके मूल मंत्र को ही भूल चुकी है । जिसके अनुसार किसी भी कार्य को आरंभ करने से पूर्व यह विचार कर लेना चाहिये कि जो कदम उठाया जा रहा है वह उस आदमी के लिये कितना उपयोगी होगा जो समाज में सबसे गरीब और कमजोर है ।
जिस प्रकार सरकार ने गरीबी और पिछड़ेपन के पैमाने को साढ़े चार लाख निर्धारित किया है उससे तो यही लगता है कि वह अपनी राजनैतिक रोटी सेंकने की योजना बना रही है। इस गरीब देश में साढ़े चार लाख रुपये कमाने वाला आदमी सिर्फ इसलिए गरीब माना जा रहा है क्यों कि वह किसी खास तबके से संबंध रखता है । क्या यह उचित है ?
एक ओर पूरा देश गरीबी, भुखमरी की बदहाली से जूझ रहा है , किसान आत्महत्या कर रहे हैं। गरीबी की मार से पीड़ित लोग अपने नवजात को अस्पतालों के सामने छोड़ने को विवश हैं। वहीं इन सब से बेखबर देश की भ्रष्ट सरकारें वोट का गंदा खेल खेल रहीं है।
देश की सत्तर फीसदी जनसंख्या बीस रुपये से कम में भले ही गुजर-बसर कर रही है लेकिन सरकार को तो साढ़े चार लाख कमाने वाला भी गरीब नज़र आता है। क्यों ? सिर्फ इसलिए कि वह एक खास तबके से है, उसकी जाति पिछड़ी है ? दलित चिंतक और गरीबों के मसीहा भी इसपर चुप्पी साधे बैठे हैं। आखिर असली फायदा तो उन्हे ही मिला है, भले ही उन्ही की जाति का पड़ोसी बिना खाना खाये सो जाता हो लेकिन उन्हें लगता है कि अपने उत्थान से ही जाति का उत्थान हो सकता है ।
इस तरह की नीतियों के कारण पिछड़ों के उत्थान के लिये दिया गया आरक्षण प्रभावहीन और लक्ष्य से भटका हुआ नज़र आ रहा है। अपने लोग ही असली दुश्मन बन कर उभरें हैं। सारी मलाई वे खुद ही खाना चाहते हैं, हा मंत्र पूरे समुदाय के पिछड़ेपन का जपते हैं ।
सरकारी घोषणा के अनुसार देखें तो पुलिस के डीआजी स्तर का अधिकारी, विश्व विद्यालय के प्राचार्य और सरकारी डॉक्टर, इंजीनीयर भी पिछड़ेपन और गरीबी के शिकार हैं अगर वे पिछड़ी जाति में पैदा हुए हैं। सरकारी आरक्षण और सभी तरह के अनुदानों पर पहला हक उन्हीं का है । भले ही उन्हीं के पड़ोस का बच्चा बाल मजदूरी के लिये विवश हो किया जा रहा हो।
अदूरदर्शी सरकार की ऐसी घोषणाएं हमारे देश के सामंती समाज में फैली आर्थिक और सामाजिक विषमता को बढ़ाती जा रही हैं। गरीब और अमीर के बीच की खाई दिनों दिन बढ़ती जा रही है । भविष्य में गरीब-अमीर में आपसी वर्ग संघर्ष जैसे घातक परिणाम देखने को मिल सकते हैं। ऐसी परिस्थिति में सरकारों को अपने राजनीतिक स्वार्थों से ऊपर उठकर देश में सामाजाकि और आर्थिक समानता लाने वाले दूरदर्शी निर्णय लेने होंगे ।
(यह लेख जनसत्ता के संपादकीय पृष्ट पर प्रकाशित हो चुका है। )

शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011

षडयंत्र की शिकार दिल्ली लोकल

दस साल पहले भी दिल्ली में लोकल ट्रेन चलती थी आज भी चल रही है । वही रंग-रूप वही सीटें वही पटरियां और स्टेशन भी वही। हां लेकिन भीड़ कुछ बढ़ गई है, लोगों की भी और जेबकतरों की भी। ट्रेन में पापड़ और मूंगफली, और पान मशाला बेचने वालों भी अधिक दिखने लगी है। महिलाओं के डिब्बे अब अलग रंग के कर दिये गये हैं। अब लाल डिब्बे में घुसने की गलती करने वाले को बख्सा नहीं जाता ।

इस रेल बजट में भी ममता बनर्जी की दिल्ली के प्रति उदासीनता बरकार है । उन्हे लगता है कि यहां तो मैट्रो है लोफ्लोर बस हैं तो फिर नई ट्रेन चलाने की क्या जरूरत। बजट आते हैं और चले जाते हैं लेकिन दिल्ली को कुछ नहीं मिलता है। इस बार भी कुछ नहीं मिला । हां कुछ लोकल ट्रेनों में डिब्बों की संख्या 12 से घटा कर 8 कर दी गई है। वहीं कलकत्ता और मुंबई पर जम कर मेहरबानी दिखाई गई है । हां पिछले साल ममता की महिलाओं के प्रति कुछ हमदर्दी देखने को मिली थी ।

महिलाओं के लिये भीड़ भरे डिब्बे में घुसना भी आसान नहीं होता था । लेकिन अब महिलाओं को खासा तवज्ज़ो दिया जा रहा है । फरीदाबाद, गाज़ियाबाद, पलवल, से लेकर पानीपत- सोनीपत, और रोहतक रिवाड़ी की महिलायें दिल्ली में अपने सपने साकार करने पहुंचने लगी हैं। ममता दीदी ने महिलाओं के कष्ट को समझा , दिल्ली में भी एक नई शुरुआत हुई । मुम्बई के बाद यहां से भी महिला स्पेशल ट्रेने शुरु की गईं। लेकिन शायद दिल्ली की महिलायें को अलग ट्रेन में चलना रास नहीं आया । सुबह शाम चलने वाली ट्रेन सफल नहीं हो पायी है । हालांकि चल रही है अभी भी। महिलायें इन ट्रेनों के इंतजार करने से बेहतर किसी भी ट्रेन को पकड़ कर अपने स्थान पर जल्दी पहुंचना पसंद करती हैं।

दूसरी ओर आम आदमी की दिलचस्पी भी दिल्ली की लोकल में घटती दिख रही है । दिल्ली की लोकल में चलने वाले 60 से 70 फीसदी यात्री रेलवे के कर्मचारी ही होते हैं । किराया इतना कम है कि 5 रुपये में दिल्ली के किसी भी कोने में पहुंच सकते हैं, 8 रुपये में गाजियाबाद और पलवल तक घूम सकते हैं । इतना सस्ता किराया शायद ही दुनिया के किसी दूसरे महानगर में हो। फिर भी क्या कारण है कि मुंबई में 50 लाख यात्रियों को रोजाना सफर कराने वाली लोकल ट्रेन दिल्ली में पूरी तरह से फ्लॉप साबित हुई है। यहां दिन में मात्र 3 लाख यात्री ही लोकल रेलवे के सफर की जहमत उठाते हैं।
इसके उदासीनता के पीछे कई कारण हैं, एक तो यहां की लोकल ट्रेनों के लिये अलग से ट्रैक नहीं है। ये ट्रेनें भी मेन ट्रैक पर ही चलाई जाती हैं। इसका असर यह होता है कि ज्यादातर लोकल ट्रेनों को रोक कर दूसरी एक्प्रेस ट्रेनों को पास कराया जाता है। 12.20 की लोकल का 1.20 पर आना बहुत सामान्य बात है। दूसरे बड़े स्टेशनों पर लोकल यात्रियों के लिये अलग टिकट काउंटर नहीं है। दो स्टेशन की यात्रा करने वाले यात्री घंटो लंबी लाइन में क्यों लगेगा।
रेलवे स्टेशन प्रायः ऐसी जगहों पर हैं जहां से शहर के अन्य स्थानों पर पहुंचने का साधन नहीं है। इन ट्रेनों में न तो सौचालय है और न ही बैठने के लिये अच्छी सीट। 21 वीं सदी में भी भारतीय यात्री लकड़ी की सख्त बेंच पर बैठने को मजबूर हैं। ऐसे में ये दूरी स्वाभाविक लगती है।
दरअसल दिल्ली की लोकल ट्रेन की कभी महत्व दिया ही नहीं गया । 1980 के एशियाड के समय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने दिल्ली में सरकुलर रेलवे यानी कि मुद्रिका लाइन की शुरुआत की थी । लेकिन 30 साल बीतने की बाद शायद 10 प्रतिशत दिल्ली वासियों को भी इस रेलवे रूट के बारे में जानकारी नहीं है। सरोजनी नगर, चाणक्य पुरी, लोधी कालोनी और लाजपत नगर जैसे इलाकों से गुजरने वाली इस रेलवे लाइन को जानबूझ कर साजिश के तहत गुमनाम बना के रखा गया है ।
पहले सीएनजी वाली डीटीसी बसें और फिर लोफ्लोर और अब मैट्रो को लेकर सरकार और प्रशासन मे दिखने वाली बेचैनी इस बेहतरीन रेलवे रूट के लिये कभी नहीं देखी गई । इस सौतेले व्यवहार के पीछे के षड़यंत्र को साफ देखा जा सकता है । इसमें रेल मंत्रालय के साथ दिल्ली प्रदेश सरकार भी शामिल हैं ।
शून्य प्रदूषण वाले इस रूट पर खर्च किये गये धन और संसाधनों का समुचित दोहन करने के बजाय मैट्रो औऱ लोफ्लोर बसों के लिये खरबों रुपये के आर्डर दिये जाते रहे हैं । इनके पीछे की खेल को आसानी से समझा जा सकता है । निज़ामुद्दीन स्टेशन को नई दिल्ली से जोड़ने वाली मुद्रिका रेलवे पर दिन भर में मुश्किल से 10 ट्रेनें चलाई जाती हैं । यहां के स्टेशनों की बदहाली किसी से छिपी नहीं है। राष्ट्रमंडल खेलों के कारण कुछ सुधार जरुर देखने को मिला है । लेकिन अभी भी ज्यादातर स्टेशनों पर नशेड़ियों और झुग्गी झोपड़ी वालों का कब्ज़ा है । झुग्गी झोपड़ियों में रहने वाले लोग पूरे रेलवे स्टेशन को अपने आंगन और शौचालय के रूप में प्रयोग करते हैं । इस रूट पर यात्रा करना अत्यंत असुरक्षित समझा जाता है, खासकर रात की यात्रा तो भयावह होती है । अरावली की खूबसूरत पहाड़ियों के बीच बने इन स्टेशनों पर कहीं कोई सुरक्षाकर्मी नज़र नहीं आता । यहां हर तरफ नशेड़ियों और असमाजिक तत्वों का बोलबाला है। आये दिन होने वाली घटनायें इस रूट को और भी अलोकप्रिय बना रहीं हैं।

बुधवार, 2 फ़रवरी 2011

धर्म का धंधा ( business of religion )

वैर कराता मंदिर मस्जिद मेल कराती...............
भारत एक ऐसा देश है जहां धर्म का कारोबार सबसे तेजी से फल-फूल रहा है। इस धंधे में हर तरह की गंदगी को नज़र अंदाज़ किया जाता है। काले को सफेद और अवैध को वैध बनाने का सबसे अच्छा माध्यम है ये पाक कारोबार है। यदि किसी को मंदिर मस्जिद या फिर गुरुद्वारा बनाना हो तो यकीन मानिये कि किसी भी तरह की समस्या नहीं हो सकती । जमीन का रजिस्ट्रेशन ,इनकम टैक्स, संपत्ति का ब्योरा और स्रोत कुछ भी बताने दिखाने की ज़रूरत नहीं। किसी नाजायज़ विवादित या सरकारी जमीन को कब्जाना है तो धार्मिक ढ़ाचे बनवा दी जिये । नेता से मंत्री तक सब आपके साथ खड़े होकर निर्माण करवायेंगे। भारत में तो रातों-रात मंदिर मस्जिद बनाये जाते हैं। चौराहा हो रेलवे स्टेशन हो या फिर कोई पार्क , जहां चाहिये आसानी से कब्जा हो जाता है।

10 वर्ष पूर्व दिल्ली में गिने चुने सांई मंदिर हुआ करते थे। लेकिन आज देखिये जहां कभी पार्क या कूड़ा घर हुआ करता था आज वहां सांई जी विराजमान हैं । न जाने कितने ही ऐसे मंदिर मस्जिद हर दिन बन कर तैयार हो रहें हैं । जिनमें ज्यादातर पुलिस और मीडिया के देखरेख में बनवाये जाते है। जमीन मुफ्त की मिल ही जाती है और पैसा तो धर्म के नाम से आ जाता है ।चिंता है तो सुरक्षा और संरक्षण की, तो जनता है न। किसी की बुरी नज़र अगर इस तरफ जाती भी है तो उन्मादी जनता ढाल बन जाती है या बना दी जाती है। वोटबैंक नेता,अधिकारी और मंत्री जी पर भी अंकुश लगा देता है।

दिल्ली में सरकारी जिनमें रेलवे एयरपोर्ट नगरनिगम और न जाने कितने ही विभाग ऐसे हैं जिनकी जमीनों पर कितने ही अवैध मंदिर मस्जिद बना दिये गये । रेलवे प्लेटफार्म से लेकर बस अड्डे तक सब जगह मंदिर मस्जिद वाले अपना कब्जा किये बैठे हैं। न जाने कितने कि गलत कामों को इन स्थानों से संचालित किया जाता है। सब मिली भगत का खेल। नीचे मंदिर मस्जिद बने हैं ऊपर तरह तरह के अवैध व्यापार हो रहें हैं। पूरे प्रांगड़ को मंदिर के नाम पर निजी इस्तेमाल किये जाते हैं । इन स्थानों पर चढ़ावे के धन का भी बंदर बांट होता है । नारियल और अन्य प्रशादों को उन्हीं दुकानों पर फिर से रीसाइकल किया जाता है।


मंदिर मस्जिद आज अपराधियों का अड्डा और छिपने के बेहतरीन स्थान बनते जा रहें हैं। अयोध्या में न जाने कितने मंदिर ऐसे हैं जिनमें रहने वाले लोग हत्या बलात्कार जैसे अपराधों को अंजाम देने के बाद चैन की बंसी बजा रहे हैं । मथुरा और देवबंद जैसी जगहों की कहानी भी यही हैं । पुलिस भी ऐसे स्थानों पर जाने से डरती है । आजके हमारे धर्मस्थल असमाजिक तत्वों के पनाहगार बनते जा रहें हैं। यह नेता, पुलिस, पुजारी प्रशासन सबका साझा कारोबार है ।
यूरोप की जनता तो चर्च और पोप के जाल से बच निकली है । चर्च का महान साम्राज्य ध्वस्त हो चुका है। वहां की जनता अब धार्मिक अंधविश्वासों और उनके पीछे छिपे लोगों को पहचान चुकी है। उसने सीख लिया है कि कैसे धर्म के ठेकेदारों से सचेत रहना है । अब सवाल यह उठता है कि भारत में धार्मिक आस्था के नाम से राज कर रहे कुछ धूर्तों से छुटकारा कैसे पायें । जिन परिस्थितियों में आज देश है ऐसे में इन धार्मिक इमारतों की प्रासंगिकता क्या है। इनका लगातार होता निर्माण कितना जायज़ है ।

पिछले दिनों निजामुद्दीन स्टेशन के पास गिराये गये इसी तरह के अवैध मस्जिद रूपी ढांचे पर कितना बवाल हुआ । किस किस तरह की राजनीति खेली गई। दंगा भड़कते भड़कते रह गया । सरकार ने सरेंड़र न किया होता तो न जाने क्या अनर्थ हो जाता ।

इस तरह के स्थानों की याद लोगों को तभी आती है जब उनका निर्माण होना हो या उन्हे तोड़ने की बातें होती है। बाकी के समय इस तरह के निर्माण या तो व्यक्तिगत संपत्ति बन कर रह जाते हैं या फिर उपेक्षा में धूल फांक रहे हैं । अयोध्या में राम मंदिर या बाबरी मस्जिद के पुनर्निर्माण की कितनी ही बातें क्यों न होती हो लेकिन उसी अयोध्या में सैकड़ो मंदिर- मस्जिद ऐसे हैं जो निहायत ही जर्जर अवस्था में है। उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं है। न तो नेता न ही श्रद्धालु । हां सब की चाहत यही है कि हर गांव हर चौराहे पर एक मस्जिद या मंदिर बना दिया जाय ।

धर्म के पीछे की राजनीति को समझना आसान नहीं है। इसमें हांथ डालने वाला अपना हांथ जला ही लेता है। आज साजिस के तहत देवता और देवियां बनाई जा रही हैं । कहतें है कि कलयुग में कोई ईश्वर अवतार नहीं लेता लेकिन आज कितने ही ईश्वर हमारे सामने पिछले 200 सालों में अवतरित हो चुके हैं । कितने ही हैं जो ईश्वर की निर्माण प्रक्रिया में हैं । जल्द ही वे भी ईश्वर स्वीकार लिये जायेंगें। 18वीं सदी में जन्में साईं बाबा शायद पहले देवता हैं जिन्हें गढ़ा गया है। आज तो उनका पुनर्जन्म भी हो चुका है । नये सांई पैदा हो चुके हैं । नये सांई का इतिहास बताने की जरूरत नहीं है। इसके अलावा आशाराम बापू और अमृतानंदमयी मां (अम्मा) तो अपने भक्तों में देव तूल्य हो चुके हैं और न जाने कितने ही ऐसे बाबा हैं जिनका विशाल साम्राज्य है और जो अपनी पूजा करवातें हैं। आगामी समय में हो सकता है कि योग गुरू रामदेव के भी मंदिरों का निर्माण होने लगे ।

इस्लाम धर्म भी एक क्रांति के दौर में हैं यह दौर है अधिक से अधिक लोगों को नमाज़ी मुस्लिम बनाना । जो भटक गयें हैं उन्हें मस्जिदों में दुबारा लाना । कुरान के आदेशों और शरीयत को लागू करना । इसके लिये बड़ी संख्या में मस्जिदों का निर्माण हो रहा है। अब चाहे सांई की बढ़ती सत्ता हो या मुस्लिम धर्म में मस्जिद बनाने की होड़ । इसका अंत कहां है। देश के हजारों ऐसे गांव है जहां स्कूल अस्पताल नहीं है लेकिन वहां मस्जिद जरूर मिल जायेगें । लोगों में धार्मिक स्थानों के प्रति गहरी आस्था और उन्माद पैदा किया जा रहा है। उन्हें इसकी सबसे अधिक जरूरत का अहसास कराया जाता है। कितने ही लोग ऐसे है जिन्होने समाज के उत्थान वाले कामों मसलन शिक्षा,स्वास्थ, अनाथ एवं वृद्धा आश्रमों पर एक भी पैसा दान नहीं किया है लेकिन धर्म के नाम पर उन्होने अपनी जमीन तक बेच दी है। धर्म का यही उन्माद कुछ लोगों के लिये फायदे का सौदा बन गया है।

किसी अपाहिज को एक रुपये भीख न दे सकने वाला पढ़ा लिखा नवजवान शनिदेव की बाल्टी में न जाने क्या सोच कर दिल खोल देता है। कई लोगों ने तो यहां तक निर्णय कर लिया है कि उनकी कमाई चाहे काली हो या गोरी जितने गुना बढ़ेगी वे उसी अनुपात में चढ़ावा बढ़ा देंगे।

अब समाधान पर विचार करें तो हम पाते हैं कि इस अंध भक्ति को दूर करना आसान नहीं है। आखिर इस तरह के काम ही तो जन्नत और वैकुंठ का द्वार खोलते हैं । आज लोगों को अपने वर्तमान से ज्यादा भविष्य की चिंता है वो भी ऐसा भविष्य जो मृत्यु के बाद का है। जनता को यह समझना जरूरी है कि उसका भविष्य मंदिर मस्जिद या गुरुद्वारे में नहीं है । बल्कि शिक्षा स्वास्थ और रोजगार में है । पूजा अर्चना नमाज तो घर बैठ कर हो सकता है । क्या किसी देवता ने प्रकट होकर यह कहा है कि मैं सिर्फ मंदिर मस्जिद रुपी ढ़ाचे में ही मिलुंगा। आस्तिकों के लिये तो ईश्वर उसके दिल में विराजमान होते हैं । स्वच्छ मन मस्तिष्क द्वारा किसी भी एकांत स्थल पर ईश्वर की सत्ता से साक्षात्कार किया जा सकता है। फिर ऐसे मंदिर मस्जिद की क्या जरूरत है जिनका आधार तुच्छ राजनीति, खूनी संघर्षो और न जाने कि कितने ही जोड़ तोड़ और कुकर्मों के बाद निर्मित किया जाता है।
अगर कुछ बनाना ही है कि अस्पताल, स्कूल बूढ़ो, बच्चों और अबला महिलाओं के लिये आश्रम और सामुदायिक केंद्र या चौपाल बनवायें जहां बिना किसी भेदभाव के किसी भी धर्म जाति लिंग के स्त्री पुरूष आकर अपना दुख दर्द बांट सके । शायद इसी में इंसानियत को एक बेहतर भविष्य मिल जाये .......................

यह लेख 28 फरवरी 2011 को जनसत्ता के संपादकीय पृष्ट पर प्रकाशित हो चुका है
आशीष मिश्र

सोमवार, 24 जनवरी 2011

किताबें मेरी हमराही हैं ......................

एक फीचर .....


पुस्तकें अपनी पहचान और महत्व को खोती जा रहीं हैं । पढ़ने की संस्कृति विलुप्त हो रही है । फिर दौड़भाग भरी जिंदगी में टीवी, इंटरनेट, फेसबुक और ईबुक जैसे माध्यमों ने किताबों की प्रासंगिकता को खत्म कर दिया है। किताबें जनता के बजट से बाहर हो चुकी हैं । ऐसे में कुछ कठिन सवाल हर बार उठते हैं । पुस्तक मेले और बड़ी साहित्यिक गोष्ठियों में ये प्रश्न और भी मारक रूप से सामने आते हैं। चिंता व्यक्त की जाती है, शोक मनाया जाता है। सबका एक ही सवाल आखिर किताबों का भविष्य क्या है ? इस तरह के प्रश्नों पर कई तरह के मत सामने आते हैं।
प्रोफेसर जगदीश्वर चतुर्वेदी किताबों के भविष्य को लेकर चिंतित हैं । वे कहते हैं कि यह बुक रीडिंग का नहीं स्क्रीन रीडिंग का युग है। इसका यह अर्थ नहीं है कि रीडिंग के पुराने रूपों का खात्मा हो जाएगा।किंतु यह सच है कि स्क्रीन रीडिंग से पुस्तक, पत्र-पत्रिका आदि के पाठक घटेंगे। यह रीडिंग का प्रमुख रूप हो जाएगा। पुरानी रीडिंग के रूप वैसे ही बचे रह जाएंगे जैसे अभी भी राजा बचे रह गए हैं। एकदम शक्तिहीन। पुस्तक का भी यही हाल होगा।
जब लोग 6-8 घंटे स्क्रीन पर पढ़ेंगे या काम करेंगे तो पुस्तक वगैरह पढ़ने के लिए उनके पास समय ही कहां होगा! बच्चों के बीच धैर्य कम होता चला जाएगा।इस समूची प्रक्रिया को इनफोटेनमेंट के कारण और भी गंभीर खतरा पैदा हो गया है। अब टीवी देखते समय हम सोचते नहीं हैं, सिर्फ देखते हैं। बच्चे किताब पढ़ें इसके लिए उन्हें शिक्षित करना बेहद मुश्किल होता जा रहा है।
लेकिन आईआईएमसी की लाइब्रेरियन प्रतिभा शर्मा के विचार कुछ भिन्न हैं । उनका मानना है कि किताबों का क्रेज कभी कम नहीं हो सकता। जिन्हें पुस्तकों में दिलचस्पी है वे किताब पढ़े बिना संतुष्ट नहीं होते भले ही किताब में लिखी बात अन्य मीडिया के माध्यम से वे जान चुके हों।
शायद इन्हीं विचारों को पुष्ट करने के लिये वे अपने कार्यकाल के पहले ही वर्ष संस्थान में पुस्तक मेले का एक सफल आयोजन करती हैं । इसके पीछे वे एक अलग तरह का कारण बताती हैं । वे कहती हैं ज़माना बदल गया है आज के छात्र लाइब्रेरियन या अध्यापक द्वार चुनी हुई या कहें थोपी हुई किताबों से संतुष्ट नहीं है । वैश्वीकरण के दौर में उनकी पसंद में जबर्दस्त बदलाव आया है । उनके चुनाव करने की क्षमता भी विकसित हुी है ।
इसी बात को ध्यान में रखते हुए मैने इस मेले का आयोजन करवाया । यहां छात्रों और अध्यापकों को अपने पसंद की किताबों को अपने लाइब्रेरी के लिये चयन का अधिकार दिया गया है। यह एक नई परंपरा है आशा है यह छात्रों को भी पसंद आयेगी ।
प्रोफेसर आनंद प्रधान का मानना है कि यह एक बेहतरीन पहल है। किताबें हमारे जीवन का एक नया दरवाजा खोलती हैं । किताबें तो दुनिया की खिड़की होती हैं। पुस्तक प्रदर्शनी का उद्देश्य ही होता है पढ़ने लिखने की संस्कृति को प्रोत्साहन देना । उनका मानना है कि वैश्वीकरण के इस दौर में किताबें भी ग्लोबल हो रही हैं । दुनिया के बड़े बड़े प्रकाशक भारत आ रहें हैं । भारतीय प्रकाशक भी देश की सीमाओं को लांघने लगे हैं।
किताबों के भविष्य उज्ज्वल है।

लेखक एवं व्यंगकार यशवंत कोठारी कहते हैं कि भइया किताबें कितनी भी मंहगी क्यों न हो जायें मेरे झोले में पत्र पत्रिकाओं के अलावा किताबें हमेशा रहती हैं। हर पुस्तक मेले में जाता हूं। किताबें उलटता हूं, पलटता हूं, कभी कभी कुछ अंश वहीं पर पढ़ लेता हूं या फोटोकॉपी करा लेता हूं, मगर पुस्तक खरीदना हर तरह से मुश्किल होता जा रहा है।
वास्तव में हर किताब एक मशाल है। एक क्रान्ति है, ऐसा किसी ने कहा था। किताब व्यक्ति के अन्दर की नमी को सोखती है। थके हुए आदमी को पल दो पल का सुकून देती है, किताबें। हारे हुए आदमी को उत्साह, उमंग और उल्लास देती है किताबें। वे जीने का सलीका सिखाने का प्रयास करती है। सूचना, विचार दृष्टिकोण, दस्तावेज़, प्यार, घृणा, यथार्थ, रोमांस, स्मृतियाँ, कल्पना, सब कुछ तो देती हैं किताबें मगर कोई किताब तक पहुँचे तब न।
पुस्तकें हमारे जीवन का सच्चा दर्पण हैं। वे हमारे व्यक्तित्व, समाज, देश, प्रदेश को सजाती है, सँवारती है, हमें संस्कार देती है । किसी व्यक्ति की किताबों का संकलन देखकर ही आप उसके व्यक्तित्व का अंदाजा लगा सकते हैं। कहते हैं कि किताबें ही आदमी की सच्ची दोस्त होती हैं और दोस्तों से ही आदमी की पहचान भी। अतः किताबों के भविष्य पर शंका करने से बेहतर है कि हम उनसे दोस्ती बढ़ायें उन्हे अपना हमराही बनायें । कहते हैं न कि मित्र हमेशा आपके पास आपकी मदद के लिये नहीं रह सकतें हैं लेकिन किताबें और उनसे मिलने वाला ज्ञान परदेश और वीरानें के अकेलेपन में भी आपकी सच्ची मार्गदर्शक और मित्र होती हैं ।

अंत में कुछ विद्वानों के कथन से पुस्तकों की महत्ता को परिभाषित किया जा सकता है --

थोमस ए केम्पिस कहते हैं-"बुद्धिमानो की रचनाये ही एकमात्र ऐसी अक्षय निधि हैं जिन्हें हमारी संतति विनिष्ट नहीं कर सकती. मैंने प्रत्येक स्थान पर विश्राम खोजा, किन्तु वह एकांत कोने में बैठ कर पुस्तक पढ़ने के अतिरिक्त कहीं प्राप्त न हो सका."
क्लाईव का कथन है कि " मानव जाति ने जो कुछ किया, सोचा और पाया है, वह पुस्तकों के जादू भरे पृष्ठों में सुरक्षित हैं".
वहीं बाल गंगा धर तिलक ने कहा था " मैं नरक में भी पुस्तकों का स्वागत करूँगा क्यूंकि जहाँ ये रहती हैं वहां अपने आप ही स्वर्ग हो जाता है".

आशीष मिश्र