

महिलाओं के लिये भीड़ भरे डिब्बे में घुसना भी आसान नहीं होता था । लेकिन अब महिलाओं को खासा तवज्ज़ो दिया जा रहा है । फरीदाबाद, गाज़ियाबाद, पलवल, से लेकर पानीपत- सोनीपत, और रोहतक रिवाड़ी की महिलायें दिल्ली में अपने सपने साकार करने पहुंचने लगी हैं। ममता दीदी ने महिलाओं के कष्ट को समझा , दिल्ली में भी एक नई शुरुआत हुई । मुम्बई के बाद यहां से भी महिला स्पेशल ट्रेने शुरु की गईं। लेकिन शायद दिल्ली की महिलायें को अलग ट्रेन में चलना रास नहीं आया । सुबह शाम चलने वाली ट्रेन सफल नहीं हो पायी है । हालांकि चल रही है अभी भी। महिलायें इन ट्रेनों के इंतजार करने से बेहतर किसी भी ट्रेन को पकड़ कर अपने स्थान पर जल्दी पहुंचना पसंद करती हैं।

दूसरी ओर आम आदमी की दिलचस्पी भी दिल्ली की लोकल में घटती दिख रही है । दिल्ली की लोकल में चलने वाले 60 से 70 फीसदी यात्री रेलवे के कर्मचारी ही होते हैं । किराया इतना कम है कि 5 रुपये में दिल्ली के किसी भी कोने में पहुंच सकते हैं, 8 रुपये में गाजियाबाद और पलवल तक घूम सकते हैं । इतना सस्ता किराया शायद ही दुनिया के किसी दूसरे महानगर में हो। फिर भी क्या कारण है कि मुंबई में 50 लाख यात्रियों को रोजाना सफर कराने वाली लोकल ट्रेन दिल्ली में पूरी तरह से फ्लॉप साबित हुई है। यहां दिन में मात्र 3 लाख यात्री ही लोकल रेलवे के सफर की जहमत उठाते हैं।

इसके उदासीनता के पीछे कई कारण हैं, एक तो यहां की लोकल ट्रेनों के लिये अलग से ट्रैक नहीं है। ये ट्रेनें भी मेन ट्रैक पर ही चलाई जाती हैं। इसका असर यह होता है कि ज्यादातर लोकल ट्रेनों को रोक कर दूसरी एक्प्रेस ट्रेनों को पास कराया जाता है। 12.20 की लोकल का 1.20 पर आना बहुत सामान्य बात है। दूसरे बड़े स्टेशनों पर लोकल यात्रियों के लिये अलग टिकट काउंटर नहीं है। दो स्टेशन की यात्रा करने वाले यात्री घंटो लंबी लाइन में क्यों लगेगा।
रेलवे स्टेशन प्रायः ऐसी जगहों पर हैं जहां से शहर के अन्य स्थानों पर पहुंचने का साधन नहीं है। इन ट्रेनों में न तो सौचालय है और न ही बैठने के लिये अच्छी सीट। 21 वीं सदी में भी भारतीय यात्री लकड़ी की सख्त बेंच पर बैठने को मजबूर हैं। ऐसे में ये दूरी स्वाभाविक लगती है।
दरअसल दिल्ली की लोकल ट्रेन की कभी महत्व दिया ही नहीं गया । 1980 के एशियाड के समय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने दिल्ली में सरकुलर रेलवे यानी कि मुद्रिका लाइन की शुरुआत की थी । लेकिन 30 साल बीतने की बाद शायद 10 प्रतिशत दिल्ली वासियों को भी इस रेलवे रूट के बारे में जानकारी नहीं है। सरोजनी नगर, चाणक्य पुरी, लोधी कालोनी और लाजपत नगर जैसे इलाकों से गुजरने वाली इस रेलवे लाइन को जानबूझ कर साजिश के तहत गुमनाम बना के रखा गया है ।

पहले सीएनजी वाली डीटीसी बसें और फिर लोफ्लोर और अब मैट्रो को लेकर सरकार और प्रशासन मे दिखने वाली बेचैनी इस बेहतरीन रेलवे रूट के लिये कभी नहीं देखी गई । इस सौतेले व्यवहार के पीछे के षड़यंत्र को साफ देखा जा सकता है । इसमें रेल मंत्रालय के साथ दिल्ली प्रदेश सरकार भी शामिल हैं ।
शून्य प्रदूषण वाले इस रूट पर खर्च किये गये धन और संसाधनों का समुचित दोहन करने के बजाय मैट्रो औऱ लोफ्लोर बसों के लिये खरबों रुपये के आर्डर दिये जाते रहे हैं । इनके पीछे की खेल को आसानी से समझा जा सकता है । निज़ामुद्दीन स्टेशन को नई दिल्ली से जोड़ने वाली मुद्रिका रेलवे पर दिन भर में मुश्किल से 10 ट्रेनें चलाई जाती हैं । यहां के स्टेशनों की बदहाली किसी से छिपी नहीं है। राष्ट्रमंडल खेलों के कारण कुछ सुधार जरुर देखने को मिला है । लेकिन अभी भी ज्यादातर स्टेशनों पर नशेड़ियों और झुग्गी झोपड़ी वालों का कब्ज़ा है । झुग्गी झोपड़ियों में रहने वाले लोग पूरे रेलवे स्टेशन को अपने आंगन और शौचालय के रूप में प्रयोग करते हैं । इस रूट पर यात्रा करना अत्यंत असुरक्षित समझा जाता है, खासकर रात की यात्रा तो भयावह होती है । अरावली की खूबसूरत पहाड़ियों के बीच बने इन स्टेशनों पर कहीं कोई सुरक्षाकर्मी नज़र नहीं आता । यहां हर तरफ नशेड़ियों और असमाजिक तत्वों का बोलबाला है। आये दिन होने वाली घटनायें इस रूट को और भी अलोकप्रिय बना रहीं हैं।
