शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011

षडयंत्र की शिकार दिल्ली लोकल

दस साल पहले भी दिल्ली में लोकल ट्रेन चलती थी आज भी चल रही है । वही रंग-रूप वही सीटें वही पटरियां और स्टेशन भी वही। हां लेकिन भीड़ कुछ बढ़ गई है, लोगों की भी और जेबकतरों की भी। ट्रेन में पापड़ और मूंगफली, और पान मशाला बेचने वालों भी अधिक दिखने लगी है। महिलाओं के डिब्बे अब अलग रंग के कर दिये गये हैं। अब लाल डिब्बे में घुसने की गलती करने वाले को बख्सा नहीं जाता ।

इस रेल बजट में भी ममता बनर्जी की दिल्ली के प्रति उदासीनता बरकार है । उन्हे लगता है कि यहां तो मैट्रो है लोफ्लोर बस हैं तो फिर नई ट्रेन चलाने की क्या जरूरत। बजट आते हैं और चले जाते हैं लेकिन दिल्ली को कुछ नहीं मिलता है। इस बार भी कुछ नहीं मिला । हां कुछ लोकल ट्रेनों में डिब्बों की संख्या 12 से घटा कर 8 कर दी गई है। वहीं कलकत्ता और मुंबई पर जम कर मेहरबानी दिखाई गई है । हां पिछले साल ममता की महिलाओं के प्रति कुछ हमदर्दी देखने को मिली थी ।

महिलाओं के लिये भीड़ भरे डिब्बे में घुसना भी आसान नहीं होता था । लेकिन अब महिलाओं को खासा तवज्ज़ो दिया जा रहा है । फरीदाबाद, गाज़ियाबाद, पलवल, से लेकर पानीपत- सोनीपत, और रोहतक रिवाड़ी की महिलायें दिल्ली में अपने सपने साकार करने पहुंचने लगी हैं। ममता दीदी ने महिलाओं के कष्ट को समझा , दिल्ली में भी एक नई शुरुआत हुई । मुम्बई के बाद यहां से भी महिला स्पेशल ट्रेने शुरु की गईं। लेकिन शायद दिल्ली की महिलायें को अलग ट्रेन में चलना रास नहीं आया । सुबह शाम चलने वाली ट्रेन सफल नहीं हो पायी है । हालांकि चल रही है अभी भी। महिलायें इन ट्रेनों के इंतजार करने से बेहतर किसी भी ट्रेन को पकड़ कर अपने स्थान पर जल्दी पहुंचना पसंद करती हैं।

दूसरी ओर आम आदमी की दिलचस्पी भी दिल्ली की लोकल में घटती दिख रही है । दिल्ली की लोकल में चलने वाले 60 से 70 फीसदी यात्री रेलवे के कर्मचारी ही होते हैं । किराया इतना कम है कि 5 रुपये में दिल्ली के किसी भी कोने में पहुंच सकते हैं, 8 रुपये में गाजियाबाद और पलवल तक घूम सकते हैं । इतना सस्ता किराया शायद ही दुनिया के किसी दूसरे महानगर में हो। फिर भी क्या कारण है कि मुंबई में 50 लाख यात्रियों को रोजाना सफर कराने वाली लोकल ट्रेन दिल्ली में पूरी तरह से फ्लॉप साबित हुई है। यहां दिन में मात्र 3 लाख यात्री ही लोकल रेलवे के सफर की जहमत उठाते हैं।
इसके उदासीनता के पीछे कई कारण हैं, एक तो यहां की लोकल ट्रेनों के लिये अलग से ट्रैक नहीं है। ये ट्रेनें भी मेन ट्रैक पर ही चलाई जाती हैं। इसका असर यह होता है कि ज्यादातर लोकल ट्रेनों को रोक कर दूसरी एक्प्रेस ट्रेनों को पास कराया जाता है। 12.20 की लोकल का 1.20 पर आना बहुत सामान्य बात है। दूसरे बड़े स्टेशनों पर लोकल यात्रियों के लिये अलग टिकट काउंटर नहीं है। दो स्टेशन की यात्रा करने वाले यात्री घंटो लंबी लाइन में क्यों लगेगा।
रेलवे स्टेशन प्रायः ऐसी जगहों पर हैं जहां से शहर के अन्य स्थानों पर पहुंचने का साधन नहीं है। इन ट्रेनों में न तो सौचालय है और न ही बैठने के लिये अच्छी सीट। 21 वीं सदी में भी भारतीय यात्री लकड़ी की सख्त बेंच पर बैठने को मजबूर हैं। ऐसे में ये दूरी स्वाभाविक लगती है।
दरअसल दिल्ली की लोकल ट्रेन की कभी महत्व दिया ही नहीं गया । 1980 के एशियाड के समय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने दिल्ली में सरकुलर रेलवे यानी कि मुद्रिका लाइन की शुरुआत की थी । लेकिन 30 साल बीतने की बाद शायद 10 प्रतिशत दिल्ली वासियों को भी इस रेलवे रूट के बारे में जानकारी नहीं है। सरोजनी नगर, चाणक्य पुरी, लोधी कालोनी और लाजपत नगर जैसे इलाकों से गुजरने वाली इस रेलवे लाइन को जानबूझ कर साजिश के तहत गुमनाम बना के रखा गया है ।
पहले सीएनजी वाली डीटीसी बसें और फिर लोफ्लोर और अब मैट्रो को लेकर सरकार और प्रशासन मे दिखने वाली बेचैनी इस बेहतरीन रेलवे रूट के लिये कभी नहीं देखी गई । इस सौतेले व्यवहार के पीछे के षड़यंत्र को साफ देखा जा सकता है । इसमें रेल मंत्रालय के साथ दिल्ली प्रदेश सरकार भी शामिल हैं ।
शून्य प्रदूषण वाले इस रूट पर खर्च किये गये धन और संसाधनों का समुचित दोहन करने के बजाय मैट्रो औऱ लोफ्लोर बसों के लिये खरबों रुपये के आर्डर दिये जाते रहे हैं । इनके पीछे की खेल को आसानी से समझा जा सकता है । निज़ामुद्दीन स्टेशन को नई दिल्ली से जोड़ने वाली मुद्रिका रेलवे पर दिन भर में मुश्किल से 10 ट्रेनें चलाई जाती हैं । यहां के स्टेशनों की बदहाली किसी से छिपी नहीं है। राष्ट्रमंडल खेलों के कारण कुछ सुधार जरुर देखने को मिला है । लेकिन अभी भी ज्यादातर स्टेशनों पर नशेड़ियों और झुग्गी झोपड़ी वालों का कब्ज़ा है । झुग्गी झोपड़ियों में रहने वाले लोग पूरे रेलवे स्टेशन को अपने आंगन और शौचालय के रूप में प्रयोग करते हैं । इस रूट पर यात्रा करना अत्यंत असुरक्षित समझा जाता है, खासकर रात की यात्रा तो भयावह होती है । अरावली की खूबसूरत पहाड़ियों के बीच बने इन स्टेशनों पर कहीं कोई सुरक्षाकर्मी नज़र नहीं आता । यहां हर तरफ नशेड़ियों और असमाजिक तत्वों का बोलबाला है। आये दिन होने वाली घटनायें इस रूट को और भी अलोकप्रिय बना रहीं हैं।

बुधवार, 2 फ़रवरी 2011

धर्म का धंधा ( business of religion )

वैर कराता मंदिर मस्जिद मेल कराती...............
भारत एक ऐसा देश है जहां धर्म का कारोबार सबसे तेजी से फल-फूल रहा है। इस धंधे में हर तरह की गंदगी को नज़र अंदाज़ किया जाता है। काले को सफेद और अवैध को वैध बनाने का सबसे अच्छा माध्यम है ये पाक कारोबार है। यदि किसी को मंदिर मस्जिद या फिर गुरुद्वारा बनाना हो तो यकीन मानिये कि किसी भी तरह की समस्या नहीं हो सकती । जमीन का रजिस्ट्रेशन ,इनकम टैक्स, संपत्ति का ब्योरा और स्रोत कुछ भी बताने दिखाने की ज़रूरत नहीं। किसी नाजायज़ विवादित या सरकारी जमीन को कब्जाना है तो धार्मिक ढ़ाचे बनवा दी जिये । नेता से मंत्री तक सब आपके साथ खड़े होकर निर्माण करवायेंगे। भारत में तो रातों-रात मंदिर मस्जिद बनाये जाते हैं। चौराहा हो रेलवे स्टेशन हो या फिर कोई पार्क , जहां चाहिये आसानी से कब्जा हो जाता है।

10 वर्ष पूर्व दिल्ली में गिने चुने सांई मंदिर हुआ करते थे। लेकिन आज देखिये जहां कभी पार्क या कूड़ा घर हुआ करता था आज वहां सांई जी विराजमान हैं । न जाने कितने ही ऐसे मंदिर मस्जिद हर दिन बन कर तैयार हो रहें हैं । जिनमें ज्यादातर पुलिस और मीडिया के देखरेख में बनवाये जाते है। जमीन मुफ्त की मिल ही जाती है और पैसा तो धर्म के नाम से आ जाता है ।चिंता है तो सुरक्षा और संरक्षण की, तो जनता है न। किसी की बुरी नज़र अगर इस तरफ जाती भी है तो उन्मादी जनता ढाल बन जाती है या बना दी जाती है। वोटबैंक नेता,अधिकारी और मंत्री जी पर भी अंकुश लगा देता है।

दिल्ली में सरकारी जिनमें रेलवे एयरपोर्ट नगरनिगम और न जाने कितने ही विभाग ऐसे हैं जिनकी जमीनों पर कितने ही अवैध मंदिर मस्जिद बना दिये गये । रेलवे प्लेटफार्म से लेकर बस अड्डे तक सब जगह मंदिर मस्जिद वाले अपना कब्जा किये बैठे हैं। न जाने कितने कि गलत कामों को इन स्थानों से संचालित किया जाता है। सब मिली भगत का खेल। नीचे मंदिर मस्जिद बने हैं ऊपर तरह तरह के अवैध व्यापार हो रहें हैं। पूरे प्रांगड़ को मंदिर के नाम पर निजी इस्तेमाल किये जाते हैं । इन स्थानों पर चढ़ावे के धन का भी बंदर बांट होता है । नारियल और अन्य प्रशादों को उन्हीं दुकानों पर फिर से रीसाइकल किया जाता है।


मंदिर मस्जिद आज अपराधियों का अड्डा और छिपने के बेहतरीन स्थान बनते जा रहें हैं। अयोध्या में न जाने कितने मंदिर ऐसे हैं जिनमें रहने वाले लोग हत्या बलात्कार जैसे अपराधों को अंजाम देने के बाद चैन की बंसी बजा रहे हैं । मथुरा और देवबंद जैसी जगहों की कहानी भी यही हैं । पुलिस भी ऐसे स्थानों पर जाने से डरती है । आजके हमारे धर्मस्थल असमाजिक तत्वों के पनाहगार बनते जा रहें हैं। यह नेता, पुलिस, पुजारी प्रशासन सबका साझा कारोबार है ।
यूरोप की जनता तो चर्च और पोप के जाल से बच निकली है । चर्च का महान साम्राज्य ध्वस्त हो चुका है। वहां की जनता अब धार्मिक अंधविश्वासों और उनके पीछे छिपे लोगों को पहचान चुकी है। उसने सीख लिया है कि कैसे धर्म के ठेकेदारों से सचेत रहना है । अब सवाल यह उठता है कि भारत में धार्मिक आस्था के नाम से राज कर रहे कुछ धूर्तों से छुटकारा कैसे पायें । जिन परिस्थितियों में आज देश है ऐसे में इन धार्मिक इमारतों की प्रासंगिकता क्या है। इनका लगातार होता निर्माण कितना जायज़ है ।

पिछले दिनों निजामुद्दीन स्टेशन के पास गिराये गये इसी तरह के अवैध मस्जिद रूपी ढांचे पर कितना बवाल हुआ । किस किस तरह की राजनीति खेली गई। दंगा भड़कते भड़कते रह गया । सरकार ने सरेंड़र न किया होता तो न जाने क्या अनर्थ हो जाता ।

इस तरह के स्थानों की याद लोगों को तभी आती है जब उनका निर्माण होना हो या उन्हे तोड़ने की बातें होती है। बाकी के समय इस तरह के निर्माण या तो व्यक्तिगत संपत्ति बन कर रह जाते हैं या फिर उपेक्षा में धूल फांक रहे हैं । अयोध्या में राम मंदिर या बाबरी मस्जिद के पुनर्निर्माण की कितनी ही बातें क्यों न होती हो लेकिन उसी अयोध्या में सैकड़ो मंदिर- मस्जिद ऐसे हैं जो निहायत ही जर्जर अवस्था में है। उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं है। न तो नेता न ही श्रद्धालु । हां सब की चाहत यही है कि हर गांव हर चौराहे पर एक मस्जिद या मंदिर बना दिया जाय ।

धर्म के पीछे की राजनीति को समझना आसान नहीं है। इसमें हांथ डालने वाला अपना हांथ जला ही लेता है। आज साजिस के तहत देवता और देवियां बनाई जा रही हैं । कहतें है कि कलयुग में कोई ईश्वर अवतार नहीं लेता लेकिन आज कितने ही ईश्वर हमारे सामने पिछले 200 सालों में अवतरित हो चुके हैं । कितने ही हैं जो ईश्वर की निर्माण प्रक्रिया में हैं । जल्द ही वे भी ईश्वर स्वीकार लिये जायेंगें। 18वीं सदी में जन्में साईं बाबा शायद पहले देवता हैं जिन्हें गढ़ा गया है। आज तो उनका पुनर्जन्म भी हो चुका है । नये सांई पैदा हो चुके हैं । नये सांई का इतिहास बताने की जरूरत नहीं है। इसके अलावा आशाराम बापू और अमृतानंदमयी मां (अम्मा) तो अपने भक्तों में देव तूल्य हो चुके हैं और न जाने कितने ही ऐसे बाबा हैं जिनका विशाल साम्राज्य है और जो अपनी पूजा करवातें हैं। आगामी समय में हो सकता है कि योग गुरू रामदेव के भी मंदिरों का निर्माण होने लगे ।

इस्लाम धर्म भी एक क्रांति के दौर में हैं यह दौर है अधिक से अधिक लोगों को नमाज़ी मुस्लिम बनाना । जो भटक गयें हैं उन्हें मस्जिदों में दुबारा लाना । कुरान के आदेशों और शरीयत को लागू करना । इसके लिये बड़ी संख्या में मस्जिदों का निर्माण हो रहा है। अब चाहे सांई की बढ़ती सत्ता हो या मुस्लिम धर्म में मस्जिद बनाने की होड़ । इसका अंत कहां है। देश के हजारों ऐसे गांव है जहां स्कूल अस्पताल नहीं है लेकिन वहां मस्जिद जरूर मिल जायेगें । लोगों में धार्मिक स्थानों के प्रति गहरी आस्था और उन्माद पैदा किया जा रहा है। उन्हें इसकी सबसे अधिक जरूरत का अहसास कराया जाता है। कितने ही लोग ऐसे है जिन्होने समाज के उत्थान वाले कामों मसलन शिक्षा,स्वास्थ, अनाथ एवं वृद्धा आश्रमों पर एक भी पैसा दान नहीं किया है लेकिन धर्म के नाम पर उन्होने अपनी जमीन तक बेच दी है। धर्म का यही उन्माद कुछ लोगों के लिये फायदे का सौदा बन गया है।

किसी अपाहिज को एक रुपये भीख न दे सकने वाला पढ़ा लिखा नवजवान शनिदेव की बाल्टी में न जाने क्या सोच कर दिल खोल देता है। कई लोगों ने तो यहां तक निर्णय कर लिया है कि उनकी कमाई चाहे काली हो या गोरी जितने गुना बढ़ेगी वे उसी अनुपात में चढ़ावा बढ़ा देंगे।

अब समाधान पर विचार करें तो हम पाते हैं कि इस अंध भक्ति को दूर करना आसान नहीं है। आखिर इस तरह के काम ही तो जन्नत और वैकुंठ का द्वार खोलते हैं । आज लोगों को अपने वर्तमान से ज्यादा भविष्य की चिंता है वो भी ऐसा भविष्य जो मृत्यु के बाद का है। जनता को यह समझना जरूरी है कि उसका भविष्य मंदिर मस्जिद या गुरुद्वारे में नहीं है । बल्कि शिक्षा स्वास्थ और रोजगार में है । पूजा अर्चना नमाज तो घर बैठ कर हो सकता है । क्या किसी देवता ने प्रकट होकर यह कहा है कि मैं सिर्फ मंदिर मस्जिद रुपी ढ़ाचे में ही मिलुंगा। आस्तिकों के लिये तो ईश्वर उसके दिल में विराजमान होते हैं । स्वच्छ मन मस्तिष्क द्वारा किसी भी एकांत स्थल पर ईश्वर की सत्ता से साक्षात्कार किया जा सकता है। फिर ऐसे मंदिर मस्जिद की क्या जरूरत है जिनका आधार तुच्छ राजनीति, खूनी संघर्षो और न जाने कि कितने ही जोड़ तोड़ और कुकर्मों के बाद निर्मित किया जाता है।
अगर कुछ बनाना ही है कि अस्पताल, स्कूल बूढ़ो, बच्चों और अबला महिलाओं के लिये आश्रम और सामुदायिक केंद्र या चौपाल बनवायें जहां बिना किसी भेदभाव के किसी भी धर्म जाति लिंग के स्त्री पुरूष आकर अपना दुख दर्द बांट सके । शायद इसी में इंसानियत को एक बेहतर भविष्य मिल जाये .......................

यह लेख 28 फरवरी 2011 को जनसत्ता के संपादकीय पृष्ट पर प्रकाशित हो चुका है
आशीष मिश्र