बुधवार, 9 मार्च 2011

मलाईदार राजनीति





हाल ही में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने अन्य पिछड़ा वर्ग के ‘मालदार’ यानी की क्रीमी लेयर तबके के लिये वार्षिक आमदनी की न्यूनतम सीमा को ढाई लाख से बढ़ा कर चार लाख कर दिया है। सरकार की दलील है कि इस कदम से पिछड़े और उपेक्षित वर्ग के लोगों को आरक्षण का लाभ सही मायने में मिल सकेगा।
यूपीए सरकार का दावा है कि वह गरीबों की बड़ी शुभ चिंतक है, उसका हाथ हमेशा ही गरीबों के साथ रहा है। लेकिन इस दीनबंधु सरकार की यह घोषणा चकित करने वाली है । खुद को गरीबों का मसीहा बताने वाली इस सरकार ने गरीबी और पिछड़ेपन के मापदंड जिस प्रकार निर्धारित किया है उससे तो यही प्रतीत होता है कि वह देश की जमीनी हकीकत से नावाकिफ है।
महात्मा गांधी के आर्दशों पर चलने का दावा करने वाली सरकार उनके मूल मंत्र को ही भूल चुकी है । जिसके अनुसार किसी भी कार्य को आरंभ करने से पूर्व यह विचार कर लेना चाहिये कि जो कदम उठाया जा रहा है वह उस आदमी के लिये कितना उपयोगी होगा जो समाज में सबसे गरीब और कमजोर है ।
जिस प्रकार सरकार ने गरीबी और पिछड़ेपन के पैमाने को साढ़े चार लाख निर्धारित किया है उससे तो यही लगता है कि वह अपनी राजनैतिक रोटी सेंकने की योजना बना रही है। इस गरीब देश में साढ़े चार लाख रुपये कमाने वाला आदमी सिर्फ इसलिए गरीब माना जा रहा है क्यों कि वह किसी खास तबके से संबंध रखता है । क्या यह उचित है ?
एक ओर पूरा देश गरीबी, भुखमरी की बदहाली से जूझ रहा है , किसान आत्महत्या कर रहे हैं। गरीबी की मार से पीड़ित लोग अपने नवजात को अस्पतालों के सामने छोड़ने को विवश हैं। वहीं इन सब से बेखबर देश की भ्रष्ट सरकारें वोट का गंदा खेल खेल रहीं है।
देश की सत्तर फीसदी जनसंख्या बीस रुपये से कम में भले ही गुजर-बसर कर रही है लेकिन सरकार को तो साढ़े चार लाख कमाने वाला भी गरीब नज़र आता है। क्यों ? सिर्फ इसलिए कि वह एक खास तबके से है, उसकी जाति पिछड़ी है ? दलित चिंतक और गरीबों के मसीहा भी इसपर चुप्पी साधे बैठे हैं। आखिर असली फायदा तो उन्हे ही मिला है, भले ही उन्ही की जाति का पड़ोसी बिना खाना खाये सो जाता हो लेकिन उन्हें लगता है कि अपने उत्थान से ही जाति का उत्थान हो सकता है ।
इस तरह की नीतियों के कारण पिछड़ों के उत्थान के लिये दिया गया आरक्षण प्रभावहीन और लक्ष्य से भटका हुआ नज़र आ रहा है। अपने लोग ही असली दुश्मन बन कर उभरें हैं। सारी मलाई वे खुद ही खाना चाहते हैं, हा मंत्र पूरे समुदाय के पिछड़ेपन का जपते हैं ।
सरकारी घोषणा के अनुसार देखें तो पुलिस के डीआजी स्तर का अधिकारी, विश्व विद्यालय के प्राचार्य और सरकारी डॉक्टर, इंजीनीयर भी पिछड़ेपन और गरीबी के शिकार हैं अगर वे पिछड़ी जाति में पैदा हुए हैं। सरकारी आरक्षण और सभी तरह के अनुदानों पर पहला हक उन्हीं का है । भले ही उन्हीं के पड़ोस का बच्चा बाल मजदूरी के लिये विवश हो किया जा रहा हो।
अदूरदर्शी सरकार की ऐसी घोषणाएं हमारे देश के सामंती समाज में फैली आर्थिक और सामाजिक विषमता को बढ़ाती जा रही हैं। गरीब और अमीर के बीच की खाई दिनों दिन बढ़ती जा रही है । भविष्य में गरीब-अमीर में आपसी वर्ग संघर्ष जैसे घातक परिणाम देखने को मिल सकते हैं। ऐसी परिस्थिति में सरकारों को अपने राजनीतिक स्वार्थों से ऊपर उठकर देश में सामाजाकि और आर्थिक समानता लाने वाले दूरदर्शी निर्णय लेने होंगे ।
(यह लेख जनसत्ता के संपादकीय पृष्ट पर प्रकाशित हो चुका है। )

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